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गांव को गांव रहने दीजिए -20-Apr-2023

कविता - गांव को गांव रहने दीजिए 


आधुनिकता के बंधन में

भौतिकता के क्रंदन में

वही पुरानी संबंधों का 

भाव रहने दीजिए,

गांव को गांव रहने दीजिए। 


फंसकर शहरी दलदल में 

ना छोड़ आज, जियो कल में 

मत बदलो विश्वासों को 

आपसी सद्भाव रहने दीजिए,

गांव को गांव रहने दीजिए। 


बैठ करते मन की बातें

सुख से कटती दिन और रातें

अब खींचों मत जमीं पांव से

सर जमीं पर पांव रहने दीजिए,

गांव को गांव रहने दीजिए। 


ना प्रेम के बादल कहीं पर

ना झरता है नेह झर झर

स्नेह नदियों के संगम में

खुद का नाव रहने दीजिए,

गांव को गांव रहने दीजिए। 


आधुनिक आबोहवा से

अब बचाओ चलती सांसें

मत काटो अब बाग बगीचे

थोड़ी छांव रहने दीजिए,

गांव को गांव रहने दीजिए। 


बहुत किए अब तो रुक जाओ

सारे मोहरे मत आजमाओ

सब कुछ मिटाने पर तुले हो

शेष कुछ तो दांव रहने दीजिए,

गांव को गांव रहने दीजिए। 


मत पहनाओ पुरानी जामा

कर रिस्तों का क़त्ल -ए-नामा

अपनों के संग जीने का

कुछ पुरानी आब रहने दीजिए,

गांव को गांव रहने दीजिए। 


जैसे भी है शक्ल सूरत

गांव ही है मन की मूरत

मत दिखाओ ऊंची सपने

थोड़ा तो लगाव रहने दीजिए,

गांव को गांव रहने दीजिए। 



रचनाकार -रामबृक्ष बहादुरपुरी अम्बेडकरनगर यू पी 


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4 Comments

Muskan khan

21-Apr-2023 06:24 PM

Wonderful

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अदिति झा

21-Apr-2023 10:38 AM

V nice

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Reena yadav

21-Apr-2023 09:51 AM

बहुत ही बेहतरीन

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